चतु:श्लोकी भागवत (Chatushloki Bhagwat) को भागवत पुराण का सार माना जाता है। इसमें भगवान नारायण द्वारा ब्रह्माजी को चार श्लोकों के माध्यम से सम्पूर्ण ज्ञान प्रदान किया गया है। ये श्लोक भागवत पुराण के द्वितीय स्कंध के नवम अध्याय में आते हैं। नीचे चतु:श्लोकी भागवत और उनका हिंदी में अर्थ प्रस्तुत है|
प्रस्तावना:
ज्ञानं परमगुह्यं मे यद् विज्ञानसमन्वितम् ।
सरहस्यं तदङ्गं च गृहाण गदितं मया ॥ ॐ ॥
श्रीभगवान बोले: (हे चतुरानन!) मेरा जो ज्ञान परम गोप्य है, विज्ञान (अनुभव) से युक्त है और भक्ति के सहित है उसको और उसके साधन को मैं कहता हूँ, सुनो।
यावानहं यथाभावो यद्रूपगुणकर्मक: ।
तथैव तत्त्वविज्ञानमस्तु ते मदनुग्रहात् ॥ ॐ ॥
अर्थ: मेरे जितने स्वरुप हैं, जिस प्रकार मेरी सत्ता है और जो मेरे रूप, गुण, कर्म हैं, मेरी कृपा से तुम उसी प्रकार तत्त्व का विज्ञान हो।
श्लोक 1:
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत्सदसत् परम् ।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ।। १ ।।
अर्थ: सृष्टि के आरम्भ में केवल मैं (भगवान) ही था। मुझसे अलग कुछ भी नहीं था, न सत् (अस्तित्व) और न असत् (अनस्तित्व)। सृष्टि के बाद भी मैं ही हूं और अंत में जो कुछ भी शेष रहेगा, वह भी मैं ही हूं।
श्लोक 2:
ऋतेऽर्थं यत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि ।
तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽभासो यथा तमः ।। २।।
अर्थ: जो कुछ भी आत्मा के सिवाय प्रतीत होता है और आत्मा के भीतर प्रतीत नहीं होता, उसे माया जानो। जैसे प्रकाश की अनुपस्थिति में अंधकार होता है, वैसे ही मेरी माया से भ्रामक दृश्य उत्पन्न होते हैं।
श्लोक 3:
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु ।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ।। ३ ।।
अर्थ: जैसे बड़े-बड़े तत्व छोटे-छोटे तत्वों में समाहित होते हैं और फिर भी उनसे अलग रहते हैं, उसी प्रकार मैं भी सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त होते हुए भी उससे अलग रहता हूं।
श्लोक 4:
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः ।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत्स्यात्सर्वत्र सर्वदा ।। ४ ।।
अर्थ: जो तत्त्वज्ञानी हैं, उन्हें केवल इतना ही जानना चाहिए कि सभी समय और सभी स्थानों पर, प्रत्येक वस्तु में जो सत्य है, वह मैं ही हूं।
फलश्रुति:
एतन्मतं समातिष्ठ परमेण समाधिना ।
भवान् कल्पविकल्पेषु न विमुह्यति कर्हिचित् ॥ ॐ ॥
अर्थ: चित्त की परम एकाग्रता से इस मत का अनुष्ठान करें, कल्प की विविध सृष्टियों में आपको कभी भी कर्तापन का अभिमान न होगा।
॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां वैयसिक्यां द्वितीयस्कन्धे भगवद्ब्रह्मसंवादे
नवमाध्यायान्तर्गतं चतुःश्लोकीभागवतं समाप्तम् ॥
इन श्लोकों के माध्यम से भगवान ने ब्रह्माजी को सृष्टि का गूढ़ रहस्य और भगवान की सर्वव्यापकता का ज्ञान दिया। यह ज्ञान भक्तों के लिए भगवान की महिमा और उनके सर्वव्यापी स्वरूप को समझने का माध्यम है।